होली कब है ! कब है होली ! - ये संवाद बच्चे बच्चे के जबान पर बावस्ता है , एक पूरी पीढ़ी इस संवाद के साथ जवानी से गुजरते हुए परिपक्वता को प्राप्त कर चुकी है , तो एक पूरी पीढ़ी फिर से जवान भी हो रही है । संवाद की लोकप्रियता रमेश सिप्पी के कुशल निर्देशन से लेकर अमजद खान की संवाद अदायगी और रामगढ़ के शानदार लोकेशन से इतर उस संक्षिप्त शब्द से भी है - " होली" -जिसका नाम जबान पर आते ही मानो हर मन मतवाला हो उठता है , हृदय सराबोर हो उठता है फाग की मस्ती से । जेहन में लाल ,हरे ,पीले ,सारे संभव रंग नृत्यरत हो उठते हैं ।
इन प्राथमिक रंगों लाल , हरे ,पीले और नीले से रंगी होली भौतिक विज्ञान के उस नियम के द्वारा ये सरल संदेश भी दे रही होती है ,कि जहां दो रंगों का मिलन उज्ज्वलता का निर्माण करता, और किसी तीसरे सुंदर रंग का प्रक्षेपण होता है तो वहीं सभी रंगों को समेट कर खुद में ही रख लेने की प्रवृत्ति अंधकार और कालेपन का द्योतक भी है । संग्रहण और स्वयं में सीमित हो जाने से इतर होली खुशियां बिखेरने और सुख बांटने का पर्व है ।
पुराणों में होलिका अपने सुरक्षा कवच के बावजूद भस्म हो उठती है जो प्रतीक है इस तथ्य का कि अंदर का प्रदूषण बाहरी किसी भी सुनहले आवरण से ना ही ढंका जा सकता है और ना ही संरक्षित किया जा सकता है । यह प्रदूषक आपको अंततः भस्मासुर में ही परिणत करेगा । साथ ही हृदय में श्रद्धा ,भक्ति और विश्वास निवसित है तो कोई भी तपन कोई अग्नि आपको स्पर्श नही कर सकती , आप असुर कुल में भी जन्म लेकर महती कीर्ति के धारक प्रह्लाद बन निखरेंगे ।
पर्व और उत्सवों का भारतीय संस्कृति में एक विशिष्ट स्थान रहा है , प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते ये उत्सव वस्तुतः एक स्वाभाविक अवसाद को दूर करने की कवायद की तरह है । इस रूप में होली का पर्व सभ्यता की चादर पर आ चिपके विकारों को धुलने का कार्य करता है । बनावटीपन , औपचारिकता ,और दुनियावी आडम्बरों से मुक्त करता ये त्योहार आपको पूरी स्वतंत्रता देता है हंसी ,मजाक और हुड़दंग मचाने का , यद्यपि स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए भी यहां मानवीय रहना आपका नैतिक उत्तरदायित्व बन पड़ता है ।
इस त्योहार का एक अन्य भारतीय पक्ष इसमें आर्थिक आवश्यकता नगण्य प्राय हो जाना है , एक मुट्ठी रंग से आपकी होली हो लेती है , गौर से देखें तो हर मूल भारतीय पर्व अर्थ से ज्यादा सामाजिक सरोकारों को ही उत्सव का आधार बनाता रहा है, दीगर बात है कि बाजारीकरण का दंश हर त्योहार को एक अलग नशीली ओढ़ी संस्कृति का रूप देता प्रतीत होता है , बावजूद इसके यही तो विशेष बात है भारतीयता की , भारतीय होने की । हर रंग, हर पंथ, हर सभ्यता , हर नस्ल , हर व्यंजन, हर पहनावा इसमें आ मिलकर मानो और आभामयी हो उठता है । इस मिट्टी और इसके वायुमण्डल में हर व्यष्टि आकर समष्टि हो जाती है , प्रत्येक गति यहां के समयातीत चक्र में स्वयं को विलीन कर लेती है ,तो प्रत्येक मति यहां आकर मानो स्वयं से साक्षात कर उठती है ।
होली साल भर के जमे जमाये मलाल को धुलने का पड़ाव है , नए रंगों से सुसज्जित होने का पड़ाव है ये । आशा है हम सभी ' होली आई रे ' की करतल ध्वनि से , होली कब हैं में छिपे स्याह गब्बर को भी उजले रंग से सराबोर कर देंगे ~~ हर होली सभी को शुभ सभी को मुबारक़ !
Writer - Ritesh Ojha
Place - Delhi, India
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