हे नाथ! येईन तव नित्य कामी
हे नाथ! येईन तव नित्य कामी।।
भवदीय इच्छा
प्रकटीन कर्मी
अश्रांत अत्यंत करिन श्रमा मी।। हे....।।
सुखवीन हे लोक
हरुनी मन:शोक
झिदवीन काया प्रमोदे सदा मी।। हे....।।
अश्रू पुसावे
जन हासवावे
याहून नाही जगी काहि नामी।। हे....।।
वितळून जाईन
जशि मेणबत्ती
देईन अल्प प्रकाशा तरी मी।। हे....।।
चित्ता शिवो स्वार्थ
न कधीहि देवा
न जडो कधी जीव मणि-भूमि-हेमी।। हे....।।
स्मरुनी सदा मी
तुज चित्ति वागेन
तुजवीण नाही कुणी अन्य स्वामी।। हे....।।
निरपेक्ष सेवा
खरि तीच पूजा
अर्पीन ती त्वत्पदाला सदा मी।। हे....।।
इच्छा असे हीच
पुरवून ती तूच
ने दास अंती तुझ्या दिव्य धामी।। हे....।।
-त्रिचनापल्ली तुरुंग, जानेवारी १९३१
हे तात! दे हात करुणासमुद्रा
हे तात! दे हात करुणासमुद्रा।।
निज मग्न कर्मात
जग सर्व हे नित्य
पाहील कुणि ना मम म्लान मुद्रा।। हे तात....।।
होई सुधासिंधु
होई दयाइंदु
होई मला गोड माहेर रुद्रा!।। हे तात....।।
शिवो ना अमांगल्य
मजला शिवेशा!
अभद्र धरो जीव हा ना, सु-भद्रा!।। हे तात....।।
प्रभु! जे खरे थोर
देती सदा धीर
सांभाळिती ते हता दीनक्षुद्रा।। हे तात....।।
-पुणे, सप्टेंबर १९३४