नारदजीने कहा - पुलस्त्यजी ! आपने चन्द्रमाके प्रति कामियोंद्वारा वर्णित श्रीहरि और शंकरकी आराधनाके लिये जिन व्रतोंका उल्लेख किया है उनका वर्णन करें ॥१॥
पुलस्त्यजी बोले - लोक - कल्याणके लिये कलहको भी इष्ट माननेवाले कलि ( कलह ) - प्रिय नारदजी ! आप महादेव और बुद्धिमान् श्रीहरिकी आराधनाके लिये कामियोंद्वारा कहे गये पवित्र व्रतोंका वर्णन सुनें । जब आषाढ़ी पूर्णिमा बीत जाती है एवं उत्तरायण चलता रहता है, तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु भोगिभोग ( शेषशय्या ) - पर सो जाते हैं । उन विष्णुके सो जानेपर देवता, गन्धर्व, गुह्यक एवं देवमाताएँ भी क्रमशः सो जाती हैं ॥२ - ४॥
नारदने कहा - जनार्दनसे लेकर अनुक्रमसे देवता आदिके शयनकी सब उत्तम विधि मुझे बतलाइये ॥५॥ 
पुलस्त्यजी बोले - तपोधन नारदजी ! आषाढ़के शुक्लपक्षमें सूर्यके मिथुन राशिमें चले जानेपर एकादशी तिथिके दिन जगदीश्वर विष्णुकी शय्याकी परिकल्पना करनी चाहिये । उस शय्यापर शेषनागके शरीर और फणकी रचना कर यज्ञोपवीतयुक्त श्रीकेशव ( की प्रतिमा ) - की पूजा कर ब्राह्मणोंकी आज्ञासे संयम एवं पवित्रतापूर्वक रहते हुए स्वयं भी पीताम्बर धारण कर द्वादशी तिथिमें सुखपूर्वक उन्हें सुलाना चाहिये ॥६ - ८॥ 
इसके बाद त्रयोदशी तिथिमें सुगन्धित कदम्बके पुष्पोंसे बनी पवित्र शय्यापर कामदेव शयन करते हैं । फिर चतुर्दशीको सुशीतल स्वर्णपङ्कजसे निर्मित सुखदायकरुपमें बिछाये गये एवं तकियेवाली शय्यापर यक्षलोग शयन करते हैं । पूर्णमासी तिथिको चर्मवस्त्र धारणकर उमानाथ शंकर एक - दूसरे चर्मद्वारा जटाभार बाँधकर व्याघ्र - चर्मकी शय्यापर सोते हैं । उसके बाद जब सूर्य कर्कराशिमें गमन करते हैं तब देवताओंके लिये रात्रिस्वरुप दक्षिणायनका आरम्भ हो जाता है ॥९ - १२॥
निष्पाप नारदजी ! लोगोंको उत्तम मार्ग दिखलाते हुए ब्रह्माजी ( श्रावण कृष्ण ) प्रतिपदाको नीले कमलकी शय्यापर सो जाते हैं । विश्वकर्मा द्वितीयको, पार्वतीजी तृतीयाको, गणेशजी चतुर्थीको, धर्मराज पञ्चमीको, कार्तिकेयजी षष्ठीको, सूर्य भगवान् सप्तमीको, दुर्गादेवी अष्टमीको, लक्ष्मीजी नवमीको, वायु पीनेवाले श्रेष्ठ सर्प दशमीको और साध्यगण कृष्णपक्षकी एकदशीको सो जाते हैं ॥१३ - १६॥ 
मुने ! इस प्रकार हमने तुम्हें श्रावण आदिके महीनोंमें देवताओंके सोनेका क्रम बतलाया । देवोंके सो जानेपर वर्षाकालका आगमन हो जाता है । ऋषिश्रेष्ठ ! ( तब ) बलाकाओं ( बगुलोंके झुंडों ) - के साथ कङ्क पक्षी ऊँचे पर्वतोंपर चढ़ जाते हैं तथा कौए घोंसले बनाने लगते हैं । इस ऋतुमें मादा कौएँ गर्भभारके कारण आलस्यसे सोती हैं । प्रजापति विश्वकर्मा जिस द्वितीया तिथिमें सोते हैं, वह कल्याणकारिणी पवित्र तिथि अशून्यशयना द्वितीया तिथि कही जाती है । मुने ! उस तिथिमें लक्ष्मीके साथ पर्यङ्कस्थ श्रीवत्सनामक चिह्न धारण करनेवाले चतुर्भुज विष्णुभगवानकी गन्ध - पुष्पादिके द्वारा पूजाके हेतु शय्यापर क्रमशः फल तथा सुगन्ध - द्रव्य निवेदित कर उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे कि - ॥१७ - २१॥ 
हे त्रिविक्रम ! हे अनन्त !! हे जगन्निवास !!! जिस प्रकार आप लक्ष्मीसे कभी अलग नहीं होते, उसी प्रकार आपकी कृपासे हमारी शय्या भी कभी शून्य न हो । हे देव ! हे वरद ! हे अच्युत ! हे ईश ! हे अमितवीर्यशाली विष्णो ! आपकी शय्या लक्ष्मीसे शून्य नहीं होती, उसी सत्यके प्रभावसे हमारी भी गृहस्थीके नाशका अवसर न आवे - पत्नीका वियोग न हो । देवर्षे ! इस प्रकार स्तुति करनेके बाद भगवान् विष्णुको प्रणामद्वारा बार - बार प्रसन्नकर रात्रिमें तेल एवं नमकसे रहित भोजन करे । दूसरे दिन बुद्धिमान् व्यक्ति, भगवान् लक्ष्मीधर मेरे ऊपर प्रसन्न हों - यह वाक्य उच्चारण कर श्रेष्ठ ब्राह्मणको फलोंका दान दे ॥२२ - २५॥ 
जबतक सूर्य वृश्चिकराशिपर रहते हैं, तबतक इसी विधिसे चातुर्मास्य - व्रतका पालन किया जाना चाहिये । मुने ! उसके बाद क्रमशः देवता जागते हैं । सूर्यके तुलाराशिमें स्थित होनेपर विष्णु जाग जाते हैं । उसके बाद काम और शिव जागते हैं । उसके पश्चात् द्वितीयाके दिन अपने विभवके अनुसार बिछौनेवाली शय्याके साथ लक्ष्मीधरकी मूर्तिका दान करे । महामुने ! इस प्रकार मैंने आपको यह प्रथम व्रत बतलाया, जिसका आचरण करनेपर इस संसारमें किसीको वियोग नहीं होता ॥२६ - २९॥
इसी प्रकार भाद्रपद मासमें मृगशिरा नक्षत्रसे युक्त जो पवित्र कृष्णाष्टमी होती है उसे कालाष्टमी माना गया है । उस तिथिमें भगवान् शंकर समस्त लिङ्गोंमें सोते एवं उनके संनिधानमें निवास करते हैं । इस अवसरपर की गयी शंकरजीकी पूजा अक्षय मानी गये है उस तिथिमें विद्वान् मनुष्यको चाहिये कि गोमूत्र और जलसे स्नान करे । स्नानके बाद धतूरके पुष्पोंसे शंकरकी पूजा करे । द्विजोत्तम ! केसरके गोंदका धूप तथा मधु एवं घृतका नैवेद्य अर्पित करनेके बाद ' विरुपाक्ष ( त्रिनेत्र ) मेरे ऊपर प्रसन्न हों ' - यह कहकर ब्राह्मणको दक्षिणा तथा सुवर्णके साथ नैवेद्य प्रदान करे ॥३० - ३३॥ 
इसी प्रकार आश्विन मासमें नवमी तिथिको इन्द्रियोंको वशमें करके उपवास रहकर गोबरसे स्नान करनेके पश्चात् कमलोंसे पूजन करे तथा सर्ज वृक्षके निर्यास ( गोंद ) - का धूप एवं मधु और मोदकका नैवेद्य अर्पित करे । अष्टमीको उपवास करके नवमीको स्नान करनेके बाद ' हिरण्याक्ष मेरे ऊपर प्रसन्न हों ' - यह कहते हुए तिलके साथ दक्षिणा प्रदान करे । कार्तिकमें दुग्धस्नान तथा कनेरके पुष्पसे पूजा करे और सरल वृक्षकी गोंदका धूप तथा मधु एवं खीर नैवेद्य अर्पितकर विनयपूर्वक ' भगवान् शिव मेरे ऊपर प्रसन्न हों ' - यह उच्चारण करते हुए ब्राह्मणको नैवेद्यके साथ रजतका दान करे ॥३४ - ३७॥ 
मार्गशीर्ष ( अगहन ) मासमें अष्टमी तिथिको उपवास करके नवमी तिथिमें दधिसे स्नान करना चाहिये । इस समय ' भद्रा ' औषधिके द्वारा पूजाका विधान है । पण्डित व्यक्ति श्रीवृक्षके गोंदका धूप एवं मधु और ओदनका नैवेद्य देकर ' शर्व ( शिवजी ) - को नमस्कार है, वे मेरे ऊपर प्रसन्न हों ' - यह कहते हुए रक्तशालि ( लाल चावल ) - की दक्षिणा प्रदान करे - ऐसा कहा गया है । पौष मासमें घृतका स्नान तथा सुन्दर तगर - पुष्पोंद्वारा पूजा करनी चाहिये । फिर महुएके वृक्षकी गोंदका धूप देकर मधु एवं पूड़ीका नैवेद्य अर्पित करे और ' हे देवेश त्र्यम्बक ! आपको नमस्कार है ' - यह कहते हुए शंकरजीकी प्रसन्नताके लिये मूँगसहित दक्षिणा प्रदान करे ॥३८ - ४१॥ 
माघमासमें कुशके जलसे स्नान करे और मृगमद ( कस्तूरीसे ) अर्चन करे । उसके बाद कदम्ब - वृक्षके गोंदका धूप देकर तिल एवं ओदन ( भात ) - का नैवेद्य अरित करनेके पश्चात् ' महादेव उमापति मेरे ऊपर प्रसन्न हों ' - यह कहते हुए सुवर्णके साथ दूध एवं भातकी दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये । इस प्रकार छः मासके बाद ( प्रथम ) पारणकी विधि कही गयी है । पारणके अन्तमें त्रिनेत्रधारी महादेवका क्रमसे स्नान - कार्य सम्पन्न कराये । गोरोचनके सहित गुड़द्वारा महादेवकी प्रतिमाका अनुलेपन कर उसकी पूजा करे तथा इस प्रकार प्रार्थना करे कि - ' हे ईश ! मैं दीन हूँ तथा आपकी शरणमें हूँ; आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों तथा मेरे दुःख - शोकका नाश करें ' ॥४२ - ४५॥ 
व्रतधारी द्विजश्रेष्ठ ! इसके बाद फाल्गुन मासकी कृष्णाष्टमीको उपवास करना चाहिये । दूसरे दिन नवमीको पञ्चगव्यसे भगवान् शिवको स्नान कराये तथा कुन्दद्वारा अर्चनकर चन्दनका धूप और ताम्रापात्रमें घृतसहित गुड तथा ओदनका नैवेद्य प्रदान करे । उसके बाद ' रुद्र ' शब्दका उच्चारण कर ब्राह्मणोंको नैवेद्यके साथ दक्षिणा तथा दो वस्त्र प्रदान कर महादेवको प्रसन्न करे । चैत्र मासमें गूलरके फलके जलसे स्नान कराये और मदारके फूलोंसे पूजा करे । उसके बाद बुद्धिमान् व्यक्ति घृतमिश्रित ' महिष ' नामक गुग्गुलसे धूप देकर मोदकके साथ घृत उनकी प्रसन्नताके लिये अर्पित करे एवं ' नाट्येश्वर ( भगवान् ) ! आपको नमस्कार हैं ' - यह कहते हुए नैवेद्यसहित दक्षिणारुपमें मृगचर्म प्रदान करे । इस प्रकार पूर्ण श्रद्धायुक्त होकर महादेवजीको प्रसन्न करे ॥४६ - ५१॥ 
नारदजी ! वैशाख मासमें सुगन्धित पुष्पोंके जलसे स्नान तथा आमकी मञ्जरियोंसे शंकरके पूजनका विधान है । इस समय घी - मिले सर्ज - वृक्षके गोंदका धूप तथा फलसहित घृतका नैवेद्य अर्पित करना चाहिये । बुद्धिमान् व्यक्तिको इस समय श्रीशिवके ' कालघ्न ' नामका जप करना चाहिये और तल्लीनतापूर्वक ब्राह्मणको नैवेद्य, उपवीत ( जनेऊ ) एवं अन्न आदिके साथ पानीसे भरा घड़ा दक्षिणा देनी चाहिये । ज्येष्ठ मासमें आँवलेके जलसे स्नान कराये तथा मन्दारके पुष्पोंसे उनकी पूजा करे । उसके बाद त्रिनेत्रधारी पुष्टि - कर्त्ता श्रीशिवको धूपदानमें धूप दिखलाये । फिर घी तथा दही मिला सत्तूका नैवेद्य अर्पित करे । जगत्पतिके प्रीत्यर्थ ' हे पूषाके दाँत तोड़नेवाले, भगनेत्रघ्न शिव ! आपको नमस्कार है ' - यह कहकर भक्तिपूर्वक छत्र एवं उपानद्युगल ( एक जोड़ा जूता ) दक्षिणामें प्रदान करना चाहिये ॥५२ - ५७॥
आषाढ़ मासमें बिल्वके जलसे भगवान् शिवको स्नान कराये तथा धतूरके उजले पुष्पोंसे उनकी पूजा करे; सिल्हक ( सिलारस - वृक्षका गोंद ) - का धूप दे और घृतके सहित मालपूएका नैवेद्य अर्पित करे एवं - हे दक्षके यज्ञका विनाश करनेवाले शंकर ! आपको नमस्कार है - यह ऊँचे स्वरसे उच्चारण करे । श्रावण मासमें मृगभोज्य ( जटामासी ) - के जलसे स्नान कराकर फलयुक्त बिल्वपत्रोंसे महादेवकी पूजा करे तथा अगुरुका धूप दे । उसके बाद घृतयुक्त पूप, मोदक, दधि, दध्योदन, उड़दकी दाल, भुना हुआ जौ एवं कचौड़ीका नैवेद्य अर्पित करनेके बाद बुद्धिमान् व्यक्ति ब्राह्मणको श्वेत बैल, शुभा कपिक्ला ( काली ) गौ, स्वर्ण एवं रक्तवस्त्रकी दक्षिणा दे । पण्डितोंको चाहिये कि शिवजीके ' गङ्गाधर ' इस नामका जप करें ॥५८ - ६२॥ 
इन दुसरे छः महीनोंके अनन्तर द्वितीय पारण होता है । इस प्रकार एक वर्षतक वृषभध्वज ( शिवजी ) - का पूजन कर महेश्वरके वचनानुसार मनुष्य अक्षय कामनाओंको प्राप्त करता है । स्वयं भगवान् शंकरने यह कल्याणकारी पवित्र एवं सभी पुण्योंको अक्षय करनेवाला व्रत बतलाया था । यह जैसा कहा गया है, वैसा ही है । यह कभी व्यर्थ नहीं जाता ॥६३ - ६४॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१६॥
 

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