पुलस्त्यजीने कहा - उसके बाद उस श्रेष्ठ पर्वतशिखरपर निवास करनेवाली उन तपस्विनी कात्यायनी ( दुर्गा ) - को चण्ड और मुण्ड नामके दो श्रेष्ठ दानवोंने देखा और देखते ही पर्वतसे उतरकर वे दोनों असुर अपने घर चले गये । फिर उन दोनों दूतोंने दैत्यराज महिषासुरके निकट जाकर कहा - ' असुरेन्द्र ! आप इस समय स्वस्थ तो हैं ? आइये, हमलोग विन्ध्यपर्वतपर चलकर देखें; वहाँ सुर - सुन्दरियोंमें अत्यन्त सुन्दर, श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त एक कन्या है । उस तन्वी ( सूक्ष्म देहवाली ) - ने केशपाशके द्वारा मेघोंको, मुखके द्वारा चन्द्रमाको, तीन नेत्रोंद्वारा तीनों ( गार्हपत्य, दक्षिणाग्रि, आहवनीय ) अग्नियोंको और कण्ठके द्वारा शङ्खको जीत लिया है ( उसकी शोभा और तेजसे ये फीके पड़ गये हैं ) ' ॥१ - ४॥ 
' उसके मग्न चूचुकवाले वृत्त ( सुडौल गोले ) - स्तन हाथीके गण्डस्थलोंको मात कर रहे हैं । मालूम होता है कि कामदेवने अपनेको सर्वविजयी समझकर आपको परास्त करनेके लिये उसके दो कुचरुपी दो दुर्गोंकी रचना की है । शस्त्रसहित उसकी मोटी परिघके समान अठराह भुजाएँ इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं, मानो आपका पराक्रम जानकर कामदेवने यन्त्रके समान उसका निर्माण किया है । दैत्येन्द्र ! त्रिवलीसे तरङ्गायमान उसकी कमर इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो वह भयार्त तथा अधीर कामदेवका आरोहण करनेके लिये सोपान हो । असुर ! उसके पीन कुचोंतककी वह रोमावलि इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो आरोहण करनेमें आपके भयसे कातर कामदेवका स्वेद - प्रवाह हो ' ॥५ - ८॥ 
' उसकी गम्भीर दक्षिणावर्त नाभि ऐसी लगती है, मानो कंदर्पने स्वयं ही उस सौन्दर्यगृहके ऊपर मुहर लगा दी है । मेखलासे चारों ओर आवेष्टित उस मृगनयनीका जघन बड़ा सुन्दर सुशोभित हो रहा है । उसे हम राजा कामका प्राकारसे ( चहारदीवारियोंसे ) गुप्त ( सुरक्षित ) दुर्गम नगर मानते हैं । उस कुमारीके वृत्ताकार रोमरहित, कोमल तथा उत्तम ऊरु इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो कामदेवने मनुष्योंके निवासके लिये दो रेखोंका संनिवेश किया है । महिषासुरेन्द्रः ! उसके अर्द्धोन्नत जानुयुगल इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, मानो उसकी रचना करनेके बाद थके विधाताने निरुपण करनेके लिये अपना करतल ही स्थापित कर दिया हो ' ॥९ - १२॥ 
' दैत्येश्वर ! उसकी सुवृत्त तथा रोमहीन दोनों जंघाएँ इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं, मानो ( दिव्य ) निर्मित की गयी नायिकाके रुपके द्वारा सभी लोग पराजित कर दिये गये हैं । विधाताने प्रयत्नपूर्वक उसके कमलोदरके समान कान्तिवाले दोनों पैरोंका निर्माण किया है । उन्होंने कात्यायनीके उन चरणोंके नखरुपी रत्नश्रृङ्खलाको इस प्रकार प्रकाशित किया है, मानो वह आकाशमें नक्षत्रोंकी माला हो । दैत्येश्वर ! वह कन्या बड़े और भयानक शस्त्रोंको धारण किये हुए है । उसे भलीभाँति देखकर भी हम यह न जान सके कि वह कौन है तथा किसकी पुत्री या स्त्री है । महासुरेन्द्र ! वह स्वर्गका परित्याग कर भूलतमें स्थित श्रेष्ठरत्न है । आप स्वयं विन्ध्यपर्वतपर जाकर उसे देखें और फिर जो आपकी इच्छा एवं सामर्थ्य हो वह करें ' ॥१३ - १६॥ 
उन दोनों दूतोंसे कात्यायनीके आकर्षक सौन्दर्यकी बात सुनकर महिषने ' इस विशयमें कुछ भी विचारना नहीं है ' - यह कहकर जानेका निश्चय किया । इस प्रकार मानो महिषका अन्त ही आ गया । मनुष्यके शुभाशुभको ब्रह्माने पहलेसे ही निर्धारित कर रखा है । जिस व्यक्तिको जहाँपर या जहाँसे जिस प्रकार जो कुछ भी शुभाशुभ परिणाम होनेवाला होता है, वह वहाँ ले जाया जाता है या स्वयं चला जाता है । फिर महिषने मुण्ड, नमर, चण्ड, विडालनेत्र, पिशङ्गके साथ वाष्कल, उग्रायुध, चिक्षुर और रक्तबीजको आज्ञा दी । वे सभी दानव रणकर्कश भेरियाँ बजाकर स्वर्गको छोड़कर उस पर्वतके निकट आ गये और उसके मूलमें सेनाके दलोंका पड़ाव डालकर युद्धके लिये तैयार हो गये ॥१७ - २०॥
तत्पश्चात् महिषासुरने देवीके पास धौंसेकी ध्वनिकी भाँति उच्च और गम्भीर ध्वनिमें बोलनेवाले तथा शत्रुओंकी सेनाओंके समूहोंका मर्दन करनेवाले दानवोंके सेनापति मयपुत्र दुन्दुभिको भेजा । ब्राह्मणदेवता नारदजी ! दुन्दुभिने देवीके पास पहुँचकर आकाशमें स्थित होकर उनसे यह वाक्य कहा - हे कुमारि ! मैं महान् असुर रम्भके पुत्र महिषका दूत हूँ । वह युद्धमें अद्वितीय वीर हैं । इसपर कात्यायनीने दुन्दुभिसे कहा - दैत्येन्द्र ! तुम निडर होकर इधर आओ और रम्भपुत्रने जो वचन कहा है, उसे स्वस्थ होकर ठीक - ठीक कहो । दुर्गाके इस प्रकार कहनेपर वह दैत्य आकाशसे उतरकर पृथ्वीपर आया और सुन्दर आसनपर सुखपूर्वक बैठकर महिषके वचनोंको इस प्रकार कहने लगा - ॥२१ - २४॥
दुन्दुभि बोला - देवि ! असुर महिषने तुम्हें यह अवगत कराया है कि मेरे द्वारा युद्धमें पराजित हुए निर्बल देवतालोग पृथ्वीपर भ्रमण कर रहे हैं । हे बाले ! स्वर्ग, पृथ्वी, वायुमार्ग, पाताल और शङ्कर आदि देवगण सभी मेरे वशमें हैं । मैं ही इन्द्र, रुद्र एवं सूर्य हूँ तथा सभी लोकोंका स्वामी हूँ । स्वर्ग, पृथ्वी या रसातलमें जीवित रहनेकी इच्छावाला ऐसा कोई देव, असुर, भूत या यक्ष योद्धा नहीं हुआ, जो युद्धमें मेरे सामने आ सकता हो । ( और भी सुनो ) पृथ्वी, स्वर्ग या पातालमें जितने भी रत्न हैं, उन सबको मैंने अपने पराक्रमसे जीत लिया है और अब वे मेरे पास आ गये हैं । अतः अबोध बालिके ! तुम कन्या हो और स्त्रीरत्नोंमें श्रेष्ठ हो । मैं तुम्हारे लिये इस पर्वतपर आया हूँ । इसलिये मुझ जगत्पतिको तुम स्वीकार करो । मैं तुम्हारे योग्य सर्वथा समर्थ पति हूँ ॥२५ - २९॥
पुलस्त्यजीने कहा - उस दैत्यके ऐसा कहनेपर दुर्गाजीने दुन्दुभिसे कहा - ( असुरदूत ! ) यह सत्य है कि दानवराट् महिष पृथ्वीमें समर्थ है एवं यह भी सत्य है कि उसने युद्धमें देवताओंको जीत लिया है; किंतु दैत्येश ! हमारे कुलमें ( विवाहके विषयमें ) शुल्क नामकी एक प्रथा प्रचलित है । यदि महिष आज मुझे वह प्रदान करे तो सत्यरुपमें ( सचमुच ) मैं उस ( महिष ) - को पतिरुपमें स्वेकार कर लूँगी । इस वाक्यको सुनकर दुन्दुभिने कहा - ( अच्छा ) कमलपत्राक्षि ! तुम वह शुल्क बतलाओ । महिष तो तुम्हारे लिये अपना सिर भी प्रदान कर सकता है; शुल्ककी तो बात ही क्या, जो यहाँ ही मिल सकता है ॥३० - ३२॥
पुलस्त्यजी बोले - दैत्यनायक दुद्नुभिके ऐसा कहनेपर दुर्गाजीने उच्च स्वरसे गर्जन कर और हँसकर समस्त चराचरके कल्याणार्थ यह वचन कहा - ॥३३॥ 
श्रीदेवीजीने कहा - दैत्य ! पूर्वजोंने हमारे कुलमें जो शुल्क निर्धारित किया है, उसे सुनो । ( वह यह है कि ) हमारे कुलमें उत्पन्न कन्याको जो बलसे युद्धमें जीतेगा, वही उसका पति होगा ॥३४॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - देवीकी यह बात सुनकर दुन्दुभिने जाकर महिषासुरसे इस बातको ज्यों - का - त्यों निवेदित कर दिया । उस महातेजसी दैत्यने सभी दैत्योंके साथ ( युद्धमें देवीको पराजितकम उसका पति बननेके लिये ) प्रमाण किया एवं सरस्वती ( देवी ) से युद्ध करनेकी इच्छासे विन्ध्याचल पर्वतपर पहुँच गया । नारदजी ! उसके पश्चात् सेनापति चिक्षुर नामक दैत्यने नमर नामके दैत्यको सेनाके आगे चलनेका निर्देश दिया । और वह भी महान् बली असुर उससे निर्देश पाकर बलशाली चतुरंगिणी सेनाकी एक लड़ कू टुकड्ड़ीको लेकर वेगपूर्वक दुर्गाजीपर धावा बोल दिया ॥३५ - ३८॥
उसे आते देखकर ब्रह्मा आदि देवताओंने महादेवीसे कहा - अम्बिके ! आप कवच बाँध लें । उसके बाद देवीने देवताओंसे कहा - देवगण ! मैं कवच न पहना तो उनकी रक्षाके लिये देवताओंने ( पूर्वोक्त ) विष्णुपञ्जरस्तोत्र पढ़ा । ब्रह्मन् ! उससे रक्षित होकर दुर्गाने समस्त देवताओंके द्वारा अवध्य दानव - श्रेष्ठ महिषासुरको खूब पीडित किया । इस प्रकार पहले देवश्रेष्थ शम्भुने बड़े नेत्रोंवाली ( कात्यायनी ) - से उस वैष्णव पञ्जरको कहा था, उसीके प्रभावसे उन्होंने ( देवीने ) भी पैरोंसे मारकर उस महिषासुरका कचूमर निकाल दिया । द्विज ! इस प्रकारके प्रभावसे युक्त विष्णुपञ्जर समस्त रक्षाकारी ( स्तोत्रों ) - में श्रेष्ठ कहा गया है । वस्तुतः जिसके चित्तमें चक्रपाणि स्थित हों, युद्धमें उसके अभीमानको कौन नष्ट कर सकता है ॥३९ - ४४॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१९॥
 

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