सनत्कुमारने कहा - इसके बाद महादेवने ऋषियो सामने ( ही ) ब्रह्मा आदि देवोंसे परमश्रेष्ठ तीर्थके माहात्म्यको कहा । ऋषियो ! यह सांनिहित नामक सरोवर अत्यन्त पवित्र एवं महान् कहा गया है । यतः मेरे द्व्दारा यह सेवित किया है, अतः यह मुक्ति प्रदान करनेवाला पुरुष लि॒ग्गका दर्शन कर ही परम पदका दर्शन करते हैं । मुद्रसे लेकर सरोवतरकके तीर्थ प्रतिदिन भगवान् सूर्यके आकाशके मध्यमें आ जानेपर ( दोपहरमें ) स्थाणुतीर्थमें आ जाते हैं ॥१ - ४॥
जो मनुष्य इस स्तोत्रसे भक्तिपूर्वक मेरा स्तवन करेगा, उसके लिये मैं सदा सुलभ होऊँगा - इसमें कोई संदेह नहें हैं । यह कहकर भगवान् शंकर अदृश्य हो गये । सभी देवता तथा ऋषिगण अपने - अपने स्थानको चले गये । उसके बाद पूरा - सारा - का - सारा स्वर्ग मनुष्योंसे भर गया; क्योंकि स्थाणुलिङ्गका यह माहात्म्य है कि उसका दर्शन करनेसे ही स्वर्ग प्राप्त हो जाता है । फिर सभी देवता ब्रह्माकी शरणमें गये, तब ब्रह्माने उनसे पूछा - देवताओ ! आप लोग यहाँ किस कार्यसे आये हैं ? ॥५ - ८॥ 
तब सभी देवताओंने यह वचन कहा - पितामह ! हम लोगोंको मनुष्योंसे बहुत भारी भय हो रहा है । आप हम सबकी रक्षा करें । उसके बाद देवताओंके नेता ब्रह्माने उन देवोंसे कहा - इन्द्र ! सरोवरको शीघ्र धूलिसे पाट दो और इस प्रकार इन्द्रका कल्याण करो । ब्रह्माके इस प्रकार समझानेपर पाक नामके राक्षसको मारन वाले ( पाकशासन ) भगवान् इन्द्रने देवताओंके साथ सात दिनतक धूलिकी वर्षा की और सरोवरको धूलिसे पाट दिया । देवदेव महेश्वरने देवताओंद्वारा बरसायी गयी इस धूलिकी वर्षाको देखकर लिङ्ग और तीर्थवटको अपने हाथमें ले लिया ॥९ - १२॥ 
इसलिये पहले जिस स्थानपर जल था, वह तीर्थ अत्यन्त पवित्र है । उसमें स्त्रान करनेवाला मनुष्य सभी तीर्थोंमे स्त्रान करनेका फल प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य वट और लिङ्गके बीचमें श्राद्ध करता है उसके पितर उसपर संतुष्ट होकर उसे पृथ्वी ( भर ) - में दुर्लभ वस्तु सुलभ कर देते हैं - ऐसा सुनकर वे सभी ऋषि धूलिसे भरे हुए सरोवरको देखकर श्रद्धासे अपने सभी अङ्गोंमें धूलि मलने लगे । वे मुनि भी धूलि मलनेके कारण निष्पाप हो गये और देवताओंसे पूजित होकर ब्रह्मलोक चले गये ॥१३ - १६॥ 
जो सिद्ध महात्मा पुरुष लिङ्गकी पूजा करते वे आवागमनसे रहित होकर परमसिद्धिको प्राप्त करने लगे । ऐसा जानकर तब ब्रह्माने उस आदिलिङ्गको नीचे रख उसके ऊपर पाषाणमय लिङ्गको स्थापित कर दिया । कुछ समय बीत जानेपर उसके ( आद्य लिङ्गके ) तेजसे ( वह पाषाण - मूर्ति - लिङ्ग भी ) रञ्जित हो गया । सिद्धसमुदाय उसका भी स्पर्श करनेसे परमपदको प्राप्त करने लगा । द्विजश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् देवताओंने पुनः ब्रह्मको बतलाया ब्रह्मन् ! ये मनुष्य लिङ्गका दर्शन करके परम सिद्धिको प्राप्त करनेका लाभ उठा रहे हैं । देवताओंसे यह सुनकर भगवान् ब्रह्माने देवताओंने पुनः ब्रह्माको बतलाया ब्रह्मन् ! ये मनुष्य लिङ्गका दर्शन करके परम सिद्धिको प्राप्त करनेका लाभ उठा रहे हैं । देवताओंसे यह सुनकर भगवान् ब्रह्माने देवताओंके मंगलकी इच्छासे एकके ऊपर एक, इस प्रकार सात लिङ्गोंको स्थापित कर दिया ॥१७ - २१॥ 
उसके बाद मुक्तिके अभिलाषी शम ( दमादि ) - में लगे रहनेवाले सिद्धगण यत्नपूर्वक धूलिका सेवनकर परमपदको प्राप्त करने लगे । ( वस्तुतः ) कुरुक्षेत्रमें वायुके चलनेसे उड़ी हुई धूल भी बड़े - बड़े पापियोंको मुक्ति दे देती है । किसी स्त्री या पुरुषने चाहे जानेमें या अनजानेसे पाप किया हो तो उसके सारे पाप स्थाणुतीर्थके प्रभावसे नष्ट हो जाते हैं । लिङ्गाका दर्शन करनेसे और वटका स्पर्श करनेसे मुक्ति प्राप्त होती है और उसके निकट जलमें स्त्रान करनेसे मनुष्य मनचाहे फलको प्राप्त करता है । उस जलमें पितरोंका तर्पण करनेवाला व्यक्ति जलके प्रत्येक बिन्दुमें अनन्त फलको प्राप्त करता है ॥२२ - २६॥ 
लिङ्गसे पश्चिम दिशामें काले तिलोंसे श्रद्धापूर्वक तर्पण करनेवाला व्यक्ति तीन युगोंतक ( पितरोंको ) तृप्त करता है । जबतक मन्वन्तर है और जबतक लिङ्गकी संस्थिति है, तबतक पितृगण संतुष्ट होकर उत्तम जलका पान करते है । सत्ययुगमें ' सान्निहत्य ' सर, त्रेतामें ' वायु ' नामका हद, कलि एवं द्वापरमें ' रुद्रहद ' नामके कूप सेवनीय माने गये हैं । चैत्रके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके दिन ' रुद्रहद ' नामक तीर्थमें स्त्रान करनेवाला उत्तम पुरुष परमपद - मुक्तिको प्राप्त करता है । रात्रिके समय वटके नीचे रहकर परमेश्वरका ध्यान करनेवालेको स्थाणुवटके अनुग्रह ( दया ) - से मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है ॥२७ - ३१॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४५॥
 

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