पुलस्त्यजी बोले - नन्दीने आये हुए सभी देवताओंको देखकर शङ्करको बताया । शङ्करने उठकर भक्तिपूर्वक विष्णुका गाढ आलिङ्गन किया । उन शङ्करने ब्रह्माको सिरसे ( झुककर ) प्रणाम किया एवं इन्द्रसे कुशल - समाचार पूछा तथा अन्य देवोंकी ओर देखकर उनका आदर किया । वीरभद्र आदि शैव एवं पाशुपतगण ' जय देव ' कहते हुए मन्दराचलमें प्रविष्ट हुए । उसके बाद भगवान् शिव वैवाहिक विधि सम्पन्न करनेके लिये देवताओंके साथ महान् कैलास पर्वतपर गये ॥१ - ४॥ 
तत्पश्चात् उस महान् पर्वतपर कल्याणी देवमाता अदिति, सुरभि, सुरसा एवं अन्य स्त्रियोंने शीघ्रतासे शङ्करका श्रृङ्गार किया । ( गलेमें ) मुण्डमाल धारण किये, कटिमें व्याघ्रचर्म, कानोंमें भ्रमरके समान नीले ( काले ) सर्पका कुण्डल, ( कलाईमें ) महान् सर्पोंका रत्नरुपी कङ्कण पहने, कण्ठमें हार, बाहुओंमें भुजबंद, पैरोंमें नूपुर धारण किये, सिरपर ऊँची जटा बाँधे, ललाटपर गोरोचनका तिलक लगाये हुए भगवान् शङ्कर वृषभपर विराजमान हुए । शङ्करके आगे अपनी - अपनी सवारियोंपर बैठे उनके गण एवं उनके पीछे अग्नि आदि देवता ( बारात ) चले ॥५ - ८॥ 
शङ्करकी बगलमें लक्ष्मीके साथ गरुडपर बैठे हुए विष्णु एवं हंसपर आरुढ ब्रह्मा चलने लगे । शचीके साथ ऐरावत हस्तीपर चढ़कर सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्रने श्वेत वस्त्रके बने विशाल छत्रको धारण किया । ( एक ओर ) नदियोंमें श्रेष्ठ यमुना कच्छपपर सवार होकर अपने हाथमें उत्तम श्वेत चँवर लेकर डुलाने लगी और ( दूसरी ओर ) सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वती भी हाथीपर आरुढ़ होकर हंस, कुन्द एवं इन्दुके समान उत्तम चँवर लेकर डुलाने लगी ॥९ - १२॥
कामचारी छः ऋतुएँ पँचरंगे सुगन्धित पुष्पोंको लेकर शङ्करके साथ चलने लगीं । ऐरावतके समान मतवाले हाथीपर चढ़कर पृथूदक अनुलेपन लेकर चला । तुम्बुरु आदि गन्धर्व मधुर स्वरसे गाते एवं किन्नर बाजा बजाते हुए शङ्करके पीछे - पीछे चले । नृत्य करती हुई अप्सराएँ तथा शूलपाणि त्रिलोचन देवेशकी स्तुति करते हुए मुनि और गन्धर्व ( मङ्गलमयी वरयात्रामें ) चले ॥१३ - १६॥
ऋषिसत्तम ! ग्यारह कोटि रुद्र, बारह कोटि आदित्य, आठ कोटि वसु, सड़सठ कोटि गण एवं चौबीस ( कोटि ) ऊर्ध्वरेता ऋषियोंने ( भी साथ ही ) प्रस्थान किया । महेशके पीछे यक्ष, किन्नर एवं राक्षसोंके अनगिनत झुंड विवाहके लिये उत्साहपुर्वक चले । तत्पश्चात् देवेश ( भगवान् शङ्कर ) क्षणमात्रमें पर्वतराज हिमालयपर पहुँच गये । चारों ओरसे हाथियोंपर बैठे पर्वत उनके पास इकट्ठे हो गये ॥१७ - २०॥ 
उसके बाद त्रिलोचन भगवान् शङ्करने पर्वतराजको प्रणाम किया । उसके पश्चात् अन्य पर्वतोंने भी शिवजीको प्रणाम किया जिससे वे प्रसन्न हो गये । नन्दीद्वारा दिखाये गये मार्गसे देवताओं एवं पार्षदोंके साथ वृषकेतु शङ्कर पर्वतराजके महान् पुरमें प्रविष्ट हुए । जीमूतकेतु शङ्करको आया हुआ जानकर नगरकी स्त्रियाँ ( स्वागतके उल्लासमें इतनी विह्वल हो गयीं कि ) अपना काम छोड़कर उन्हें देखने लगीं । एक स्त्री एक हाथमें आधी माला और दूसरे हाथमें अपने केशपाशको पकड़े हुए शङ्करकी ओर दौड़ पड़ी ॥२१ - २४॥ 
लालसाभरी नेत्रोंवाली अन्य स्त्री एक पैरमें महावर लगाकर तथा दूसरेमें बिना महावर लगाये शङ्करको देखने चली आयी । कोई स्त्री शङ्करको आया सुनकर एक आँखमें अञ्जन लगाये और दूसरी आँखमें अञ्जन लगानेके लिये अञ्जनयुक्त सलाई लिये दौड़ पड़ी । शङ्करके दर्शनकी उत्सुकतासे दूसरी सुन्दरी उन्मत्ताकी भाँति करधनीके साथ पहननेके वस्त्रको हाथमें लिये नंगी ही चली आयी । दूसरी कोई महादेवका आना सुनकर स्तनके भारसे अलसायी कृशोदरी बाला रोषसे अपने यौवनकी निन्दा करने लगी ॥२५ - २८॥ 
इस प्रकार नगरकी महिलाओंको क्षुभित करते हुए बैलपर चढ़े शङ्कर अपने श्वशुरके दिव्य महलमें गये । तदनन्तर घरमें प्रविष्ट हुए शम्भुको देखकर घरमें आयी हुई स्त्रियाँ स्पष्ट कहने लगीं कि पार्वतीद्वारा किया गया कठिन तप सर्वथा उचित हैं; क्योंकि ये शङ्कर महान् देव हैं । ये वही हैं, जिन्होंने कन्दर्प नामके कामदेवके शरीरको भस्म कर दिया । ये ही क्रतुक्षयी, दक्षयज्ञविनाशक, भगाक्षिहन्ता, शूलधर एवं पिनाकी हैं । ( फिर वे उन्हें बार - बार नमन करने लगीं - ) हे शङ्कर ! हे शूलपाणे ! हे व्याघ्रचर्मधारिन् ! हे कालशत्रो ! हे महान् सर्पोंका हार और कुण्डल धारण करनेवाले पार्वती - वल्लभ ! आपको बार - बार नमस्का र है ॥२९ - ३२॥ 
इस प्रकार संस्तुत तथा इन्द्रके द्वारा धारण किये छत्रसे युक्त, सिद्धों एव्म यक्षोंद्वारा वन्दनीय, सर्पका कंकण पहने, सुन्दर भस्म रमाये, ब्रह्माको आगे किये हुए एवं विष्णुद्वारा अनुगत शिव मङ्गलमयी अग्निशोभित विवाह - मण्डपकी वेदीपर गये । सहचरों और सप्तर्षियोंके साथ त्रिपुरान्तक शिवके आ जानेपर हिमवानके घरके लोग कालीका श्रृङ्गार करनेमें एवं आये हुए पर्वतदेवताओंकी पूजा और सत्कार करनेमें व्यस्त हो गये । कन्याके विवाहमें उछाहभरे प्रेमीजन प्रायः व्याकुल हो ही जाते हैं । फिर तो पार्वतीके दुबले - पतले शरीरको स्त्रियोंने उज्ज्वल रेशमी वस्त्र पहनाकर अलङ्कृत कर दिया एवं भाई सुनाभने वैवाहिक उत्सवके लिये उसे शङ्करके पास पहुँचाया । उसके बाद सोनेके बने महलके अंदर बैठे हुए देवगण शङ्कर और पार्वतीकी विवाह - विधि देखने लगे और महादेवजीने भी दुबलेपतले शरीरवाली पार्वतीके साथ जगत्पूज्य स्थानको प्राप्त कर लिया ॥३३ - ३६॥ 
सुन्दर पुष्पोंवाले वृक्षोंसे सुशोभित भूमिके घेरेमें क्रीडा करते हुए शङ्कर और पार्वतीने एक - दूसरेपर सुगन्धित जलसीकरों ( फुहारों ) और गन्धचूर्णोंकी लगातार वर्षा की । उसके बाद उन दोनोंने क्रीडा - हेतु एक - दूसरेको मुक्तादाम ( मोतीकी मालाओं ) - से आहरण - क्रीडा करनेके बाद सिन्दूरकी मुट्ठी भर - भरकर विवाह - स्थलको सिन्दूरसे रँग दिया - पृथ्वीपर सिन्दूरही - सिन्दूर कर दिया । इस प्रकार शङ्करजी पार्वतीके साथ क्रीडा करनेके पश्चात् ऋषियोंसे सेवित सुदृढ़ ( वैवाहिक मण्डपकी ) दक्षिण वेदीपर आये । उसके बाद पवित्रक पहने तथा श्वेत वस्त्र धारण किये हिमवान् श्वेत - मधुर मधुपर्क लिये हुए आये । बैठे हुए त्रिनेत्र ऐन्द्री ( पूर्व ) दिशाकी ओर देखते हुए भलीभाँति आसन ग्रहण किया । आरामसे आसनपर आसीन शङ्करसे गिरिने हाथ जोड़कर अपने धर्मका साधन वचन कहा ॥३७ - ४१॥ 
हिमवानने कहा - भगवन् ! मेरे द्वारा दी जा रही पुलहाग्रजकी पौत्री, पितरोंकी दौहित्री एवं मेरी पुत्री कालीको आप कृपया स्वीकार करें ॥४२॥ 
पुलस्त्यजी बोले - यह कहकर शैलेन्द्रने ( शङ्करके ) हाथसे ( पार्वतीके ) हाथको संयोजितकर उच्च स्वरसे यह कहते हुए कि ' हे भगवन् ! इसे आप स्वीकार करें ' दान दे दिया ॥४३॥
शङ्करने कहा - पर्वतराज ! मेरे पिता, माता, दायाद या कोई बान्धव नहीं है । मैं गृह - विहीन होकर पर्वतकी ऊँची चोटीपर रहता हूँ । मैं आपकी पुत्रीको अङ्गीकार करता हूँ । यह कहकर वरदाता शङ्करने पर्वतकी पुत्री पार्वतीके हाथको अपने हाथमें ले लिया । देवर्षे ! शङ्करके हाथका स्पर्श प्राप्त कर उसे भी अत्यन्त हर्ष हुआ । इसके बाद मधुपर्कका, प्राशन करते हुए वरदायक शङ्कर पर्वतकी पुत्रीके साथ वेदीपर बैठे । उसके बाद धानका सफेद लावा देकर ब्रह्माने गिरिजासे कहा - काली ! पतिके चन्द्रमाके समान मुखको देखो एवं समदृष्टुइमें स्थित होकर अग्निकी प्रदक्षिणा करो । उसके बाद शङ्करका मुख देखनेपर अम्बिकाको इस प्रकारकी शीतलता प्राप्त हुई जैसी सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त पृथ्वीको वृष्टि पाकर होती है ॥४४ - ४८॥ 
पितामहने फिर कहा - विभुक्ता मुख देखो । अब उसने भी लज्जापूर्वक धीरेसे ब्रह्मासे कहा - देख लिया । ( इसके बाद ) गिरिजाके साथ उन्होंने अग्निकी तीन प्रदक्षिणा की एवं अग्निमें हविष्यके साथ लावाकी आहुति दी । तत्पश्चात् मालिनीने दाय ( नेग ) - के लिये शङ्करका पैर पकड़ लिया । शङ्करने कहा - क्या माँगती हो ? मैं दूँगा । पैर छोड़ दो । मालिलीने शङ्करसे कहा - हे शङ्करजी ! मेरी सखीको अपने गोत्रका सौभाग्य दीजिये, तभी छुटकारा मिलेगा ॥४९ - ५२॥
उसके बाद महादेवने कहा - मालिनी ! तुम जो माँगती हो उसे मैंने दे दिया । मुझे छोड़ी । इसका जो गोत्रीय सौभाग्य होगा उसे मैं तुम्हें बतलाता हूँ । तुम सुनो ! ये जो पीताम्बर पहनने और शङ्ख धारण करनेवाले मधुसूदन हैं मेरा गोत्र इनका सौभाग्य ही हैं; उसे मैंने दे दिया । इस प्रकार शङ्करके कहनेपर अपने कुलकी शुभ सच्चरित्रताकी माला धारण करनेवाली मालिनीने शङ्करको छोड़ दिया । जब मालिनीने शङ्करके दोनों चरण पकड़ रखे थे, तब ब्रह्माने कालीके चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर मुखको देखा ॥५३ - ५६॥
उसको देखकर वे क्षुब्ध हो गये । उनका शुक्र च्युत हो गया । भयवंश उन्होंने उस शुक्रको बालुकामें छिपा दिया । उसके बाद शङ्करने कहा - ब्रह्मन् ! ब्राह्मणोंका वध मत कीजिये । पितामह ! ये सभी बालखिल्य महर्षि हैं, जो बड़े ही धन्य हैं । फिर शङ्करके कहनेके बाद अट्ठासी हजार बालखिल्य नामक तपस्वी उठ खड़े हुए । उसके बाद विवाह हो जानेपर शङ्कर कौतुकागार ( कोहवर ) - में गये । उन्होंने रात्रिमें पार्वतीके साथ विनोद किया । पुनः प्रातः काल उठे । उसके बाद पार्वतीको प्राप्तकर प्रसन्न हुए शङ्कर पर्वतराजसे पूजित होनेके बाद देवों एवं भूतगणोंके साथ तुरन्त ही मन्दराचलपर आ गये । उसके बाद अष्टमूर्ति शङ्करने ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देवताओंका यथोचित पूजन किया तथा उन्हें प्रणाम कर विदा किया । फिर स्वयं अपने भूतगणोंके साथ मन्दर पर्वतपर रहने लगे ॥५७ - ६२॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तिरपनवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५३॥
 

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