नारदजीने पूछा - मुने ! अन्धक दानवने पातालमें जाकर क्या किया ? शङ्करने मन्दर पर्वतपर रहकर जो कुछ किया उसे भी बतलाइये ॥१॥ 
पुलस्त्यजी बोले - ब्रह्मन् ! पातालमें रहता हुआ अन्धक कामाग्निसे दुःखी हो गया; उसका शरीर सन्तप्त होने लगा । उसने सभी दानवोंसे यह कहा - ( दानवो ! ) वही मेरा मित्र, वही मेरा बन्धु, वही भाई और वही पिता है, जो उस पर्वतपुत्रीको मेरे पास शीघ्र ला दे । कामसे अधीर हुए दैत्येन्द्र अन्धकके ऐसा कहनेपर प्रह्लादने बादलके समान गम्भीर शब्दमें कहा - वीर ! ये जो गिरिजा हैं, वे धर्मतः तुम्हारी माता हैं और त्रिलोचन शङ्कर तुम्हारे पिता हैं, इसका जो कारण है, उसे तुम सुनो ॥२ - ५॥ 
दानव ! पहले समयमें धर्ममें सदा तत्पर रहनेवाले पुत्रहीन तुम्हारे पिताने पुत्रकी कामनासे महादेवकी आराधना की थी । दानव ! त्रिलोचन शङ्करने पुत्रकी कामनावाले उसको अन्ध पुत्र दिया और यह कहा कि शक्तिशाली हिरण्याक्ष ! एक समय मैं योगमें स्थित था और उमाने परिहासार्थ मेरे तीनों नेत्रोंको बन्द कर दिया था । उसके बाद अन्धकारस्वरुप तम उत्पन्न हुआ । उस तमसे नीले मेघके समान शब्द करनेवाला एक भूत ( प्राणी ) उत्पन्न हुआ । दैत्य ! तुम इसे ग्रहण करो । यह तुम्हारे योग्य पुत्र हैं ॥६ - ९॥ 
( किंतु ) यह अधम जब संसारके विरोधमें बुरा कर्म करेगा तथा त्रैलोक्य - जननीकी चाह करेगा अथवा असुरोंको भेजकर जब यह विप्रोंका वध करायेगा, तब मैं स्वयं इसके शरीरकी शुद्धि करुँगा । ऐसा कहकर शम्भु अपने स्थान मन्दराचलपर चले गये और तुम्हारे पिता तुमको लेकर रसातलमें चले आये । इसी कारण शैलपुत्री तुम्हारी माता एवं समस्त जगतके गुरु शम्भु निश्चय ही तुम्हारे पिता हैं ॥१० - १३॥ 
आप भी तपस्या करनेवाले एवं शास्त्रके ज्ञाता तथा अनेक अलौकिक गुणोंसे भूषित हो । अतः आप - जैसे पुरुषको इस प्रकारके पाप करनेमें मानसिक निश्चय भी नहीं करना चाहिये । हे देवताओंको कष्ट देनेवाले ( अमरार्दन ! ), तीनों लोकोंपर शासन करनेवाले और सबको वन्दित अव्यक्त भगवान् शङ्कर ( सर्वथा ) अजेय हैं । उनकी ये भार्या हैं । तुम न तो इनके योग्य हो और न समर्थ ही । गणोंके सहित शङ्करको बिना जीते तुम उस पर्वतराजकी कन्याको प्राप्त करना चाहते हो, सो तो यह मनोरथ पूरा होना कठिन है । शूलपाणि शङ्करको वही जीत सकता है, जो अपनी भुजाओंसे समुद्रको पार कर जाय अथवा सूर्यको पृथ्वीपर गिरा दे या मेरु - पर्वतको उखाड़ दे ॥१४ - १७॥ 
उपर्युक्त सभी कार्य भले ही मनुष्य बलसे कर ले, किंतु शङ्कर नहीं जीते जा सकते; यह मैंने सच - सच कह दिया है । दैत्य ! क्या तुमने यह नहीं सुना है कि परस्त्रीकी अभिलाषा करनेवाला दण्ड नामका मूर्ख राजा अपने राष्ट्रके साथ विनष्ट हो गया । ( सुनो, प्राचीन कालमें ) प्रचुर सेना एवं वाहनोंसे भरा - पूरा दण्ड नामका एक राजा था । उस महातेजस्वीने पुरोहितके स्थानपर शुक्राचार्यको वृत्त किया था । शुक्राचार्यके निर्देशनमें उस राजाने भाँति - भाँतिके यज्ञोंका अनुष्ठान किया । शुक्राचार्यकी अरजा नामकी एक कन्या थी ॥१८ - २१॥ 
किसी समय शुक्राचार्य वृषपर्वा नामके असुरके पास गये हुए थे । भार्गव वंशमें श्रेष्ठ वे ( शुक्र ) उससे पूजित - सत्कृत होकर बहुत समयतक वहीं रुके रह गये । महासुर ! सुन्दरी अरजा अपने घरमें अग्निकी सेवा - हवनादि कार्य करती हुई रह गयी थी । इतनेमें एक दिन राजा दण्ड वहाँ पहुँच गया । उसने पूछा - शुक्राचार्य कहाँ हैं ? घरकी सेविकाओंने उससे कहा - वे भगवान् शुक्र दनुन न्दन ( वृषपर्वा ) - के यहाँ यज्ञ कराने गये हैं । राजाने पूछा - शुक्राचार्यके आश्रममें ( यह ) कौन स्त्री रह रही है । उन लोगोंने उत्तर दिया - राजन् ! ( यह ) गुरुजीकी कन्या अरजा है ॥२२ - २५॥ 
महाबाहु इक्ष्वाकुनन्दन ( दण्ड ) शुक्राचार्यकी उस कन्याको देखनेके लिये आश्रममें प्रविष्ट हुआ और उसने अरजाको देखा । अन्धक ! कालबलसे प्रेरित होकर राजा उसे देखकर तत्काल ही कामसे पीड़ित हो गया । उसके बाद बलवान् राजाने भृत्यों, भाइयों, घनिष्ठ मित्रों एवं शुक्राचार्यके शिष्योंको भी ( वहाँसे ) हटा दिया और ( वहाँ ) अकेला आ गया । शुक्राचार्यकी यशस्विनी कन्याने आये हुए उस राजाका भ्रातृभावसे प्रसन्नतापूर्वक स्वागत - सत्कार किया ॥२६ - २९॥
उसके बाद राजाने उससे पूछा - बाले ! मैं कामाग्निसे संतप्त हूँ । आज तुम अपने आलिङ्गनरुपी जलसे मुझे आनन्दित करो । वह ( अरजा ) बोली - नरपतिप्रवर ! ( कामसे ) अधीर होकर अपनेको विनष्ट मत करो । मेरे पिता अपने महान् क्रोधसे देवताओं को भी भस्म कर सकते हैं । मूढ - बुद्धे ! तुम मेरे भाई हो । परंतु अनीतिसे ओतप्रोत हो गये हो । मैं धर्मसे तुम्हारी बहन हूँ; क्योंकि तुम मेरे पिताके शिष्य हो । उस ( दण्डक ) - ने कहा - भीरु ! शुक्र ( भविष्यमें ) किसी समय मुझे जला देंगे; परंतु कृशोदरि ! कामकी आग तो मुझे आज ही ( अभी ) जलाये जा रही है ॥३० - ३३॥
उस ( अरजा ) - ने राजा दण्डसे कहा - राजन् ! एक क्षण प्रतीक्षा करो । तुम उन गुरुसे ही याचना करो । वे तुम्हें निः सन्देह मुझको दे देंगे । दण्डने कहा - सुन्दरि ! मैं समयकी प्रतीक्षा करनेमें असमर्थ हूँ । बहुधा अवसर चूक जानेपर कार्यमें विघ्न हो जाया करता है । उसके बाद अरजाने कहा - राजपुत्र ! मैं स्वयं अपनेको तुम्हें अर्पित करनेमें समर्थ नहीं हूँ; क्योंकि स्त्रियाँ स्वतन्त्र नहीं होतीं । अथवा नरपते ! तुमसे अधिक कहनेसे क्या ( लाभ ); ( बस मैं इतना ही कहती हूँ कि इस असत् प्रस्तावके कारण - ) तुम शुक्राचार्यके शापसे भृत्य, जाति और बन्धुओंके साथ अपना विनाश मत करो ॥३४ - ३७॥ 
उसके बाद राजाने कहा - सुन्दरि ! प्राचीन कालमें - पवित्र देवयुगमें घटित चित्राङ्गदारा एक वृतान्त सुनो । विश्वकर्माकी चित्राङ्गदा नामकी एक साध्वी कन्या थी । वह रुप और यौवनसे सम्पन्न मानो कमलसे रहित कमलिनी थी । कमलके समान नेत्रोंवाली वह किसी समय अपनी सखियोंसे धिरी हुई - सखियोंके साथ नैमिष नामके महारण्यमें स्त्रान करनेके लिये गयी । वह स्त्रान करनेके लिये जलमें जैसे ही उतरी, वैसे ही सुदेवके पुत्र बुद्धिमान् राजा सुरथ वहाँ पहुँचे । उन्होंने उस कृशाङ्गीको देखा । सुन्दर शरीरवाले वे उसे देखकर कामातुर हो गये ॥३८ - ४१॥ 
उनको देखकर उस ( चित्राङ्गदा ) - ने अपनी सखियोंसे सत्य ( छिपावरहित ) वचन कहा - यह राजपुत्र मेरे ही लिये कामपीड़ित होकर कष्ट पा रहा है । अतः मुझे यह उचित ( प्रतीत होता ) है कि इस सौन्दर्यशाली व्यक्तिको मैं अपनेको समर्पित कर दूँ । उसकी ' बाला ' सहेलियोंने उससे कहा कि सुन्दरि ! तुम सयानी ( वयस्यका ) नहीं हो । निष्पाप बालिके ! स्वयंको दान करनेमें तुम्हे स्वतन्त्रता नहीं है; तुम्हारे पिता परम धार्मिक हैं और सभी शिल्पकर्मोंमें परम निपुण हैं, इसलिये यहाँ तुम्हें अपनेको राजाके लिये ( दान ) दे देना ठीक नहीं है । इसी बीच कामबाणसे पीड़ित सत्यवक्ता बुद्धिमान् सुरथने उसके पास आकर कहा - मुग्धे ! मदिरेक्षणे ! तुम अपनी दृष्टिसे ही मुझे मोहित कर रही हो ॥४२ - ४६॥ 
कामदेवने उपस्थित होकर तुम्हारी दृष्टिरुपी बाणसे मुझे घायल कर दिया है । इसलिये तुम मुझे अपने कुचतलरुपी शय्यापर सुलानेकी योग्या हो । ऐसा न करनेपर बार - बार तुम्हारे देखनेसे तो काम मुझे जला ही डालेगा । उसके बाद उस कमलनयनी सर्वाङ्गसुन्दरीने सखियोंके रोकनेपर भी स्वयंको राजाके प्रति अर्पित कर दिया । इस तरह प्राचीन कालमें उस कृशाङ्गीने उस राजाकी रक्षा की थी । अतः सुश्रोणि ! तुम्हें भी मेरी रक्षा करनी चाहिये । शुक्रनन्दिनी अरजाने राजा दण्डसे कहा - क्या तुम उसके आगेकी घटित घटनाको नहीं जानते ? ( ऐसा ही लगता है; ) अतः मैं तुमसे कहती हूँ, ( सुनो ) । जब उस कृशाङ्गीने स्वयंको राजा सुरथके लिये स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छासे दान कर दिया, तब पिताने उसको शाप दे दिया । मन्दबुद्धि ! यतः तुमने स्त्रीस्वभावके कारण धर्मको छोड़कर ( अपनी इच्छासे ) स्वयंको प्रदान कर दिया है, अतः तुम्हारा विवाह नहीं होगा । ( और तब विवाहसे रहित होनेके कारण ) तुम पतिसे सुख नहीं प्राप्त कर सकोगी ॥४७ - ५३॥ 
तुम्हें न तो पुत्रफलकी प्राप्ति होगी और न पतिसे संयोग ही होगा । फिर तो शाप देते ही सरस्वती व्यर्थ हुए मनोरथवाले राजाको तेरह योजनतक बहा ले गयी । राजाके ( बहकर ) दूर चले जानेपर चित्राङ्गदा भी बेहोश हो गयी । महाबाहो ! उसके बाद सखियोंने सरस्वतीके जलसे उसको सींचा । सखियोंद्वारा शीतल जलसे भलीभाँति सींचे जानेपर भी वह विश्वकर्माकी पुत्री मरे हुएके समान हो गयी । सखियाँ उसे मरी हुई समझकर शीघ्रतासे कोई काष्ठ लेने एवं कुछ व्याकुल होकर अग्नि लाने चली गयीं । उत्तम वनमें उन सभीके चले जानेपर उसे चेतना प्राप्त हुई; सुन्दर अङ्गोंवाली वह चारों ओर देखने लगी । राजा एवं प्रिय सखियोंको न देखकर चञ्जल नेत्रवाली वह सरस्वतीके जलमें गिर पड़ी । नरेश्वर ! काञ्चनाक्षीने वेगपूर्वक उसे महानदी गोमतीकी हिलोरे लेती हुई लहरोंवाले जलमें फेंक दिया । राजन् ! उसकी उसकी भवितव्यताको जानकर उस ( गोमती ) - ने भी उसे सिंह एवं व्याघ्रसे पूर्ण वनमें फेंक दिया । इस प्रकार मैंने उसकी स्वतन्त्रताकी इस दुरवस्थाका वर्णन सुना है । अतः मैं अपने उत्तम शीलकी रक्षा करती हुई स्वयंको तुम्हें समर्पित नहीं करुँगी । इन्द्रके तुल्य बलवान् राजा दण्डने उसके उस वचनको सुनकर हँसते हुए उस अरजासे पुरुषार्थको नष्ट करनेवाला अपना अभिप्राय कहा ॥५४ - ६३॥
दण्डने कहा - कृशोदरि ! उसके पिता तथा राजा सुरथके साथ घटित हुए उसके बादके वृत्तान्तको सुननेके लिये तुम सावधान हो जाओ । राजाके दूर चले जानेपर जब वह महावनमें गिरी, उस समय आकाशमें संचरण करनेवाले अञ्जन नामके गुह्यकने उसे देखा । उसके बाद वह उस बालाके पास गया और प्रयत्नपूर्वक उसे सान्त्वना देते हुए कहा - सुभगे ! सुरथके लिये उदास मत होओ ! अयि कजरारे नेत्रोंवाली ! तुम उससे संयोग अवश्य प्राप्त कर लोगी । अतः तुम शीघ्र भगवान् श्रीकण्ठका दर्शन करनेके लिये चली जाओ ॥६४ - ६७॥ 
उस गुह्यकके ऐसा कहनेपर सुन्दर नेत्रोंवाली वह शीघ्रतापूर्वक कालिन्दीके दक्षिण तटपर स्थित श्रीकण्ठके निकट चली गयी । वह कालिन्दीके जलमें स्त्रान करके महेश्वर श्रीकण्ठका दर्शन कर दोपहरतक सिर झुकाये स्थित रही । इतनेमें देव श्रीकण्ठके पास शुभ लक्षणोंसे युक्त, पाशुपताचार्य, सामवेदी, तपोधन, ऋतध्वज स्त्रान करनेके लिये आये । मुनिने कामसे रहित रतिके समान कृशाङ्गी कल्याणकारिणी चित्राङ्गदाको वहाँ देखा ॥६८ - ७१॥ 
उन मुनिने उसको देखकर ध्यान किया कि यह कौन है । इसके बाद वह उन ऋषिके निकट जाकर उन्हें प्रणाम कर हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी । ( ऋषिने ) उससे पूछा - पुत्रि ! देवकन्याकी भाँति तुम किसकी पुत्री हो ? मनुष्या तथा पशुर हित इस वनमें तुम क्यों आयी हो ? उसके बाद उस कृशोदरीने उन ऋषिसे सच्ची बात कही । उसे सुनकर ऋषि क्रुद्ध हो गये और शिल्पियोंमें श्रेष्ठ विश्वकर्माको शाप दे दिया - यतः उस पापीने दूसरेके देनेयोग्य भी अपनी इस पुत्रीको पतिसे युक्त नहीं किया, अतः वह शाखामृग ( बन्दर ) हो जाय ॥७२ - ७५॥ 
यह कहनेके बाद उन महायोगीने पुनः विधिपूर्वक स्त्रान एवं पश्चिम ( सायंकालीन ) सन्ध्या कर शङ्करजीका पूजन किया । शास्त्रमें कही गयी विधिसे देवेश्वर शङ्करकी पूजा करनेके बाद उन्होंने पतिको चाहनेवाली तथा सुन्दर भौंहो और दाँतोंवाली चित्राङ्गदासे कहा - सुभगे ! कल्याणदायक सप्तगोदावर नामके देशमें जाओ । वहाँ महान् हाटकेश्वर भगवानकी पूजा करते हुए निवास करो । रम्भोरु ! वहाँपर रहती हुई दैत्य कन्दरमालीकी प्रसिद्ध देववती नामकी कल्याणकारिणी पुत्री तुम्हारे पास आयेगी ॥७६ - ७९॥ 
इसके सिवाय वहींपर अञ्जन नामक गुह्यककी प्रसिद्ध नन्दयन्ती नामकी तपस्विनी पुत्री तथा वेदवती नामक पर्जन्यकी कल्याणमयी पुत्री भी आयेगी । जब वे तीनों हाटकेश्वर महादेवके पास सप्तगोदावरमें आयेंगी उस समय तुम उनसे मिलोगी । मुनिके इस प्रकार कहनेपर बाला चित्राङ्गदा वहाँसे शीघ्र सप्तगोदावर नामके तीर्थमें गयी । वहाँ जानेके बाद वह देवाधिदेव त्रिलोचनकी पूजा तथा फल - मूलका भक्ष्ण करती हुई पवित्रापूर्वक रहने लगी और उन ज्ञानसम्पन्ना ऋषिने उसकी हित - कामनासे प्रेरित होकर श्रीकण्ठके मन्दिरमें महान् आख्यानसे युक्त एक श्लोक लिखा - ' ऐसा कोई देवता, असुर, यक्ष, मनुष्य या राक्षस नहीं है, जो अपने पराक्रमसे इस मृगयनीका दुःख दूर कर सके । ' इस प्रकार श्लोक कहने ( लिखने ) - के बाद उस विशालाक्षीके विषयमें सोच - विचार करते हुए वे मुनि पूज्य विभु पुश्करनाथका दर्शन करनेके लिये मुनिवृन्दसे वन्द्य पयोष्णी नदीके तटपर चले गये ॥८० - ८६॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तिरसठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६३॥
 

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