पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! आश्विन मासमें जब जगत्पति ( विष्णु ) - की नाभिसे कमल निकला, तब अन्य देवताओंसे भी ये वस्तुएँ उत्पन्न हुईं - कामदेवके करतलके अग्रभागमें सुन्दर कदम्ब वृक्ष उत्पन्न हुआ । इसीलिये कदम्बसे उसे बड़ी प्रीति रहती है । नारदजी ! यक्षोंके राजा मणिभद्रसे वटवृक्ष उत्पन्न हुआ, अतः उन्हें उसके प्रति विशेष प्रेम है । भगवान् शंकरके हदयपर सुन्दर धतूर - वृक्ष उत्पन्न हुआ, अतः वह शिवजीको सदा प्यारा है ॥१ - ४॥
 ब्रह्माजीके शरीरके बीचसे मरकतमणिके समान खैरवृक्षकी उत्पत्ति हुई और विश्वकर्माके शरीरसे सुन्दर कटैया उत्पन्न हुआ । गिरिनन्दिनी पार्वतीके करतलपर कुन्द लता उत्पन्न हुई और गणपतिके कुम्भ - देशसे सेंदुवारवृक्ष उत्पन्न हुआ । यमराजकी दाहिनी बगलसे पलाश तथा बायीं बगलसे गूलरका वृक्ष उत्त्पन्न हुआ । रुद्रसे उद्विग्र करनेवाला वृष ( ओषधि - विशेष ) - की उत्पत्ति हुई । इसी प्रकार स्कन्दसे बन्धुजीव, सूर्यसे पीपल, कात्यायनी दुर्गासे शमी और लक्ष्मीजीके हाथसे बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ ॥५ - ८॥
 नारदजी ! इसी प्रकार शेषनागसे सरपत, वासुकिनागकी पुच्छ और पीठपर श्वेत एवं कृष्ण दूर्वा उत्पन्न हुई । साध्योंकें हदयमें हरिचन्द्नवृक्ष उत्पन्न हुआ । इस प्रकार उत्पन्न होनेसे उन सभी वृक्षोंसे उन - उन देवताओंका प्रेम होता है ।
 उस रमणीय सुन्दर समयमें शुक्लपक्षकी जो एकादशी तिथि होती है, उसमें भगवान् विष्णुकी पूजा करनी चाहिये । इससे पूजाकी न्यूनता दूर हो जाती है । शरत्कालकी उपस्थितितक गन्ध , वर्ण और रसयुक्त पत्र, पुष्प एवं फलों तथा मुख्य ओशधियोंसे भगवान् विष्णुकी पूजा करनी चाहिये ॥९ - १२॥
 घी, तिल, चावल, जौ, चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता, मूँगा तथा नाना प्रकारके वस्त्र, स्वादु, कटु, अम्ल, कषाय, लवण और तिक्त रस आदि वस्तुओंको अखण्डितरुपसे महात्मा केशवकी पूजाके लिये अर्पित करना चाहिये । इस प्रकार पूजा करते हुए वर्षको बितानेपर घरमें पूर्ण समृद्धि होती है । देवर्षे ! जितेन्द्रिय होकर दूसरे दिन उपवास करके जिससे वर्ष अखण्डित रहे इसलिये इस प्रकार स्नान करे - ॥१३ - १६॥
 सफेद सरसों या तिलके द्वारा उबटन तैयार करना चाहिये ऐसा कहा गया है । उससे या घीसे भगवान् विष्णुको स्नान कराना चाहिये । नारदजी ! होममें भी घीका ही विधान है और दानमें भी यथाशक्ति उसीकी विधि है । फिर पुष्पोंद्वारा चरणसे आरम्भकर ( सिरतक ) सभी अङ्गोंमें केशवकी पूजा करे एवं नाना प्रकारके धूपोंसे उन्हें सुवासित करे, जिससे संवत्सर पूर्ण हो । सुवर्ण, रत्नो और वस्त्रोंद्वारा ( उन ) जगदगुरुका पूजन करे तथा राग - खाँड, चोश्य एवं हविष्योंका नैवेद्य अर्पित करे । सुव्रत नारदजी ! देवेश जगदगुरु विष्णुकी पूजा करनेके बाद इस मन्त्रसे प्रार्थना करे - ॥१७ - २०॥
 हे महाकान्तिवाले पद्मनाभ लक्ष्मीपते ! आपको प्रणाम है । ( आपकी कृपाके प्रसादसे ) हमारे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अखण्ड हों । विकसित कमलपत्रके समान नेत्रवाले ! आप जिस प्रकार चारों ओरसे अखण्ड हैं, उसी सत्यके प्रभावसे मेरे भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ( पुरुषार्थ ) अखण्डित रहें । ब्रह्मन् ! इस प्रकार वर्षभर उपवास और जितेन्द्रिय रहते हुए सभी वस्तुओंके द्वारा व्रतको अखण्डरुपसे पूरा करे । इस व्रतके करनेपर देवता निश्चितरुपसे प्रसन्न होते हैं एवं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष सभी पूर्ण होते हैं ॥२१ - २४॥
 नारद ! यहाँतक मैंने तुमसे सकाम व्रतोंका वर्णन किया है । अब मैं कल्याणकारी विष्णुपञ्जर स्तोत्रको कहूँगा । ( वह इस प्रकार है - ) गोविन्द ! आपको नमस्कर है । आप सुदर्शनचक्र लेकर मेरी पूर्व दिशामें रक्षा करें । विष्णो ! मैं आपकी शरणमें शरणमें हूँ । अमितद्युते पद्मनाभ ! आप कौमोदकी गदा धारणकर मेरी दक्षिण दिशामें रक्षा करें । विष्णो ! मैं आपके शरण हूँ । पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । आप सौनन्द नामक हल लेकर मेरी पश्चिम दिशामें रक्षा करें । विष्णों ! मैं आपकी शरणमें हूँ ॥२५ - २८॥
 पुण्डरीकाक्ष ! आप ' शातन ' नामके विनाशकरी मुसलको लेकर मेरी उत्तर दिशामें रक्षा करें । जगन्नाथ ! मैं आपकी शरणमें हूँ । हरे ! शार्ङ्गधनुष एवं नारायणास्त्र लेकर मेरी ईशानकोणमें रक्षा करें । रक्षोघ्न ! आपको नमस्कार है, मैं आपके शरण हूँ । यज्ञावाराह विष्णो ! आप पाञ्चजन्य नामक विशाल शङ्ख तथा अन्तर्बोध्य पङ्कजको लेकर मेरी अग्निकोणमें रक्षा करें । दिव्यमूर्ति नृसिंह ! सूर्यशत नामकी ढाल तथा चन्द हास नामकी तलवार लेकर मेरी नैऋत्यकोणमें रक्षा करें ॥२९ - ३२॥
 आप वैजयन्ती नामकी माला तथा श्रीवत्स नामका कण्ठाभूषण धारणकर मेरी वायव्यकोणमें रक्षा करें । देव हयग्रीव ! आपको नमस्कार है । जनार्दन ! वैनतेय ( गरुड़ ) - पर आरुढ़ होकर आप मेरी अन्तरिक्षमें रक्षा करें । अजित ! अपराजित ! आपको सदा नमस्कार है । महाकच्छप ! आप विशालाक्षपर चढ़कर मेरी रसातलमें रक्षा करें । महामोह ! आपको नमस्कर है । पुरुषोत्तम ! आप आठ हाथोंसे पञ्जर बनाकर हाथ, सिर एवं सन्धिस्थलों ( जोड़ो ) आदिमें मेरी रक्षा करें । देव ! आपको नमस्कार है ॥३३ - ३६॥
 द्विजोत्तम ! प्राचीन कालमें भगवान् शंकरने कात्यायनी ( दुर्गा ) - की रक्षाके लिये इस महान् विष्णुपञ्जरस्तोत्रको उस स्थानपर कहा था, जहाँ उन्होंने महिषासुर, नमर, रक्तबीज एवं अन्यान्य देव - शत्रुओंका नाश किया था ॥३७ - ३८॥
 नारदजीने पूछा - ऋषे ! महिषासुर, नमर, रक्तबीज, तथा अन्यान्य सुर - कण्टकोंका वध करनेवाली ये भगवती कात्यायनी कौन हैं ? तात ! यह महिष कौन है ? तथा वह किसके कुलमें उत्पन्न हुआ था ? यह रक्तबीज कौन है ? तथा नमर किसका पुत्र है ? आप इसका यथार्थ रुपसे विस्तारपूर्वक वर्णन करें ॥३९ - ४०॥
 पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! सुनिये, मैं उस पापनाशक कथाको कहता हूँ । मुने ! सब कुछ देनेवाली वरदायिनी भगवती दुर्गा ही ये कात्यायनी हैं । प्राचीनकालमें संसारमें उथल - पुथल मचानेवाले रम्भ और करम्भ नामके दो भयंकर और महाबलवान् असुरश्रेष्ठ थे । देवर्षे ! वे दोनों पुत्रही न थे । उन दोनों दैत्योंने पुत्रके लिये पञ्चनदके जलमें रहकर बहुत वर्षोंतक तप किया । मालवट यक्षके प्रति एकाग्र होकर करम्भ और रम्भ - इन दोनोंमेसे एक जलमें स्थित होकर और दूसरा पञ्चाग्निके मध्य बैठकर तप कर रहा था ॥४१ - ४४॥
 इन्द्रने ग्राहका रुप धारणकर इनमें से एकको जलमें निमग्न होनेपर पैर पकड़कर इच्छानुसार दूर ले जाकर मार डाला । उसके बाद भाईके नष्ट हो जानेपर क्रोधयुक्त महाबलशाली रम्भने अपने सिरको काटकर अग्निमें हवन करना चाहा । वह अपना केश पकड़कर हाथमें सूर्यके समान चमकनेवाली तलवार लेकर अपना सिर काटना ही चाहता था कि अग्निने उसे रोक दिया और कहा - दैत्यवर ! तुम स्वयं अपना नाश मत करो । दूसरेका वध तो पाप होता ही है, आत्महत्या भी भयानक पाप है ॥४५ - ४८॥
 वीर ! तुम जो माँगोगे, तुम्हारी इच्छाके अनुसार वह मैं तुम्हें दूँगा । तुम मरो मत । इस संसारमें मृत व्यक्तिकी कथा नष्ट हो जाती है । इसपर रम्भने कहा - यदि आप वर देते हैं तो यह वर दीजिये कि मुझे आपसे भी अधिक तेजस्वी त्रैलोक्यविजयी पुत्र उत्पन्न हो । अग्निदेव ! समस्त देवताओं तथा मानवों और दैत्योंसे भी वह अजेह हो । वह वायुके समान महाबलवान्‍ तथा कामरुपी एवं सर्वास्तवेता हो । नारदजी ! इसपर अग्निने उससे कहा - अच्छा, ऐसा ही होगा । जिस स्त्रीमें तुम्हारा चित्त लग जायगा उसीसे तुम पुत्र उत्पन्न करोगे ॥४९ - ५२॥
 अग्निदेवके ऐसा कहनेपर रम्भ यक्षोंमे धिरा हुआ मालवट यक्षका दर्शन करने गया । वहाँ उन यक्षोंका एक पद्म नामकी निधि अनन्य - चित्त होकर निवास करती थी । वहाँ बहुत - से बकरे, भेंडे, घोड़े, भैंसे तथा हाथी और गाय - बैल थे । तपोधन ! दानवराजने उन्हें प्रकट किया ( अर्थात् आसक्त हुआ ) । कामपरायण होकर वह महिषी शीघ्र दैत्येन्द्रके समीओप आ गयी तब भवितव्यतासे प्रेरित उसने ( रम्भने ) भी उस महिषीके साथ संगत किया ॥५३ - ५६॥
 उसे गर्भ रह गया । उसके बाद उस महिषीको लेकर दानव पातालमें प्रविष्ट हुआ और अपने घर चला गया । उसके दानव - बन्धुओंने उसे देख एवं ' अकार्यकारक ' जानकर उसका परित्याग कर दिया । फिर वह पुनः मालवटके निकट गया । वह सुन्दरी महिषी भी उसी पतिके साथ उस पवित्र और उत्तम यक्षमण्डलमें गयी । मुने ! उसके वहीं निवास करते समय उस महिषीने सन्तान उत्पन्न की । उसने एक शुभ्र तथा इच्छाके अनुकूल रुप धारण करनेवाले महिष - पुत्रको जन्म दिया ॥५७ - ६०॥
 उसके पुनः ऋतुमती होनेपर एक दूसरे महिषने उसे देखा । वह अपने शीलकी रक्षा करती हुई दैत्यश्रेष्ठके निकट गयी । नाकको ऊपर उठाये उस महिषको देखकर दानवने खङ्ग निकालकर महिषकर वेगसे आक्रमण किया । उस महिषने भी तीक्ष्ण श्रृङ्गोंसे दैत्यके हदयमें प्रहार किया । वह दैत्य हदय फट जानेसे भूमिपर गिर पड़ा और मर गया । पतिके मर जानेपर वह महिषी यक्षोंकी शरणमें गयी । उसके बाद गुह्यकोंने महिषको हटाकर साध्वी महिषीकी रक्षा की ॥६१ - ६३४॥
 यक्षोंद्वारा हटाया गया कामातुर हयारि ( महिष ) एक दिव्य सरोवरमें गिर पड़ा । उसके बाद वह मरकर एक दैत्य हो गया । मुने ! वन्य पशुओंको मारते हुए यक्षोंके आश्रयमें रहनेवाला महान् बली तथा पराक्रमी वह दैत्य ' नमर ' नामसे विख्यात हुआ । फीर मालवट आदि यक्षोंने उस हयारि दैत्येश्वरको चितापर रखा । वह श्यामा भी पतिके साथ चितापर चढ़ गयी । तब अग्निके मध्यसे हाथमें खङ्ग लिये विकराल रुपवाला भयंकर पुरुष प्रकट हुआ । उसने सभी यक्षोंको भगा दिया ॥६५ - ६८॥
 और फिर उस बलवान् दैत्यने रम्भनन्दन महिषको छोड़कर सारे महिषोंको मार डाला । महामुने ! वह दैत्य रक्तबीज नामसे विख्यात हुआ । उसने इन्द्र, रुद्र, सूर्य वें मारुत आदिके साथ देवोंको जीत लिया । यद्यपि वे सभी दैत्य इस प्रकारके प्रभावसे युक्त थे; फिर भी उनमें महिष अधिक तेजस्वी था । उसके द्वारा विजित शम्बर, तारक आदि महान् असुरोंने उसका राज्याभिषेक किया । लोकपालोंसहित अग्नि, सूर्य आदि देवोंके द्वारा एक साथ मिलकर जब वह जीता नहीं गया तब चन्द्र, इन्द्र एवं सूर्यनें अपना - अपना स्थान छोड़ दिया तथा धर्मको भी दूर हटा दिया गया ॥६९ - ७२॥ 
 ॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१७॥ 
 

கருத்துக்கள்
இதுபோன்ற மேலும் கதைகள் மற்றும் புதுப்பிப்புகளுக்கு எங்கள் தந்தி குழுவில் சேரவும்.telegram channel

Books related to वामन पुराण Vaman Puran


चिमणरावांचे चर्हाट
नलदमयंती
सुधा मुर्ती यांची पुस्तके
झोंबडी पूल
अश्वमेध- एक काल्पनिक रम्यकथा
सापळा
श्यामची आई
गांवाकडच्या गोष्टी
खुनाची वेळ
अजरामर कथा
लोकभ्रमाच्या दंतकथा
मराठेशाही का बुडाली ?
कथा: निर्णय
शिवाजी सावंत
मृत्यूच्या घट्ट मिठीत