ऋषियोंने कहा - ( कृपया आप ) वामनके माहात्म्य और विशेषकर वर्णन ( विस्तारसे ) करें तथा यह भी बतलायें कि बलिको किस प्रकार बाँधकर इन्द्रको राज्य दिया गया ॥१॥ 
लोमहर्षणने कहा - मुनियो ! आपलोग प्रसन्नतापूर्वक महात्मा वामनकी उत्पत्ति, उनका प्रभाव और कुरुजाङ्गल स्थानमें उनके निवासका वर्णन सुनें ! द्विजश्रेष्ठो ! आपलोग दैत्योंके उस वंशके सम्बन्धमें भी सुनें, जिस वंशमें प्राचीनकालमें विरोचनके पुत्र बलि उत्पन्न हुए थे । पहले समयमें दैत्योंका आदिपुरुष हिरण्यकशिपु था । उसका प्रह्लाद नामक पुत्र अत्यन्त तेजस्वी दानव था । उससे विरोचन उत्पन्न हुआ और विरोचनसे बलि । हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर बलिने सभी स्थानोंसे देवताओंको खदेड़ दिया और वह चराचरसहित तीनों लोकोंका राज्य स्वच्छन्दतासे करने लगा । ( विरोधमें ) देवताओंके ( बहुत ) प्रयत्न करते रहनेपर भी तीनों लोक दैत्योंके अधीन हो ही गये ( एवं त्रैलोक्यपर देवताओंका अधिकार नहीं रह गया ) ॥२ - ६॥ 
बलशाली मय और शम्बरकी विजय - वैजयत्नी फहराने लग गयी । धर्मकार्य सर्वत्र होने लग गये । फलतः दिशाएँ शुद्ध हो गयीं । सूर्य दैत्योंके मार्ग ( दक्षिण अयन ) - में चले गये । ( दैत्योंके शासनमें ) प्रह्लाद, शम्बर, मय तथा अनुह्लाद - ये सभी दैत्य सभी दिशाओंकी रक्षा करने लगे । आकाश भी दैत्योंसे रक्षित हो गया । देवगण स्वर्गमें होनेवाले यज्ञोंकी शोभा देखने लगे । सारा संसार प्रकृतिमें स्थित और ( व्यवस्थित ) हो गया तथा सभी स्नमार्गपर चलने लगे । सर्वत्र पापोंका अभाव और धर्मभावका उत्कर्ष हो गया ॥७ - १०॥
फिर तो धर्म चारों चरणोंसे प्रतिष्ठित हो गया और अधर्म एक ही चरणपर स्थित रह गया । सभी राजा ( भलीभाँति ) प्रजापालन करते हुए सुशोभित होने लगे और सभी आश्रमोंके लोग अपने अपने धर्मका पालन करने लगे । ऐसे समयमें असुरोंने बलिको दैत्यराजके पदपर अभिषिक्त कर दिया । असुरोंका समुदाय हर्षित होकर निनाद ( जय - जयकार ) करने लगा । इसके बाद कमलके भीतरी गोफाके समान कान्तिवाली वरदायिनी और सुन्दर सुवेशवाली श्रीलक्ष्मीदेवी हाथमें कमल लिये हुए बलिके समीप आयीं ॥११ - १३॥ 
लक्ष्मीने कहा - बलवानोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी दैत्यराज बलि ! देवराजके पराजय हो जानेपर मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । तुम्हारा मङ्गल हो; क्योंकि तुमने संग्राममें पराक्रम दिखाकर देवोंके राज्यको जीत लिया है । इसलिये तुम्हारे श्रेष्ठ बलको देखकर मैं स्वयं आयी हूँ । दानव ! असुरोंके स्वामी ! हिरण्यकशिपुके कुलमें उत्पन्न हुए तुम्हारा यह कर्म ऐसा है - इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । राजन् ! आप दैत्यश्रेष्ठ अपने प्रपितामह हिरण्यकशिपुसे भी विशिष्ट ( प्रभावशाली ) हैं; क्योंकि आप पूरे तीनों लोकोंमें समृद्ध इस राज्यका भोग कर रहे हैं ॥१४ - १७॥
दैत्यराज बलिसे ऐसा कहनेके बाद सर्वदेवस्वरुपिणी एवं मनोहर रुपवाली सबकी सेव्य एवं ( सबको ) वर देनेवाली श्रीलक्ष्मी देवी राजा बलिमें प्रविष्ट हो गयीं । तब सभी श्रेष्ठ देवियाँ - ह्नी, कीर्ति, द्युति, प्रभा, धृति, क्षमा, भूति, ऋद्धि, दिव्या, महामति, श्रुति, स्मृति, इडा, कीर्ति, शान्ति, पुष्टि, क्रिया और नृत्तगीतमें निपुण दिव्य अप्सराएँ भी प्रसन्न होकर दैत्येन्द्र ( बलि ) - का सेवन करने लगीं । इस प्रकार ब्रह्मवादी बलिने चरअचरवाले त्रिलोकीका अतुल ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया ॥१८ - २१॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२३॥
 

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